जालंधर (Exclusive)कांवड़ यात्रा(kanwar yatra) श्रावण मास यानि सावन में होती है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार जुलाई का वो समय होता है जबकि मानसून अपनी बारिश से पूरे देश को भीगा रहा होता है। कांवड़ यात्रा की शुरुआत श्रावण मास की शुरुआत से होती है और ये 13 दिनों तक यानि श्रावण की त्रयोदशी तक चलती है। इसका संबंध गंगा(Ganges)के पवित्र जल और भगवान शिव(Lord Shiva) से है. सावन के महीने में कांवड़ यात्रा के लिए श्रृद्धालु उत्तराखंड के हरिद्वार(Haridwar), गोमुख और गंगोत्री(gangotri)पहुंचते हैं।
वहां से पवित्र गंगाजल लेकर अपने निवास स्थानों के पास के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में उस जल से चतुर्दशी के दिन उनका जलाभिषेक करते हैं। दरअसल कांवड़ यात्रा के जरिए दुनिया की हर रचना के लिए जल का महत्व और सृष्टि को रचने वाले शिव के प्रति श्रृद्धा जाहिर की जाती है। उनकी आराधना की जाती है। यानि जल और शिव दोनों की आराधना। अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था।
वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई। तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा। तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया, लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया। रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए। वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया।
लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी। कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था। 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा। अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है। आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2010 और इसके बाद हर साल करीब 1.2 करोड़ कांवड़िए पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं और फिर इसे अपने माफिक शिवालयों में लेकर जाते हैं।